प्रेमसिंह बामनिया की रिपोर्ट –
निमाड़ के महानायक टंटया भील का जन्म 1824-27 के मध्य हुआ। तात्या टोपे ने टंट्या को अपने साथ हमशक्ल रखने की सीख दी थी। आपने ही टंट्या को गुरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया । टंट्या मामा फिरंगियों से नफरत करता था। महिलाओं का सम्मान करने वाला यह शख्स तेज बुद्धि चातुर्य वाला था। टंट्या एक साथ 5-7 जगहों पर डाके डलवाता था। उसके प्रमुख साथियों में भीमा नायक व काल बाबा थे, रॉबिन हुड की तरह किरदार… सन् 1878 से 1886 का दौर। एक बार ब्रिटिश पुलिस ने उसे कैद कर लिया गया था मगर वह भाग निकला। एक दशक तक दस्यु सरदार के रूप में संपूर्ण भारत में उसने धूम मचा दी थी। उसके 200 साथियों को गिरफ्तार कर दंडित किया गया। शासकीय रूप से उसे कुख्यात डाकू सरदार तथा निर्धनों का हितैषी माना गया था। कोरकू व अन्य पिछड़ी जाति के लोगों पर उसका काफी प्रभाव था क्योंकि वह सहृदयता से अपनी लूट का माल गरीबों में बांट देता था । उसे जबलपुर में मुकदमा चलाकर फांसी दे दी गई।
टंट्या मामा पर हाल में एक हिन्दी फिल्म भी रिलीज हुई है। अब टंट्या मामा को सरकार ने सम्मान दिया। खंडवा जिला जेल का नामकरण टंट्या भील के नाम किया गया। प्रदेश सरकार ने उनके जन्म स्थान पर स्मारक बनाया जाकर महानायक टंटया मामा की विशाल प्रतिमा भी लगाई है ।
टंट्या, टंट्या भील, टंट्या मामा. ये नाम आपने घर बड़े-बुजुर्गों के मुंह से सुना ही होगा… क्या! सुना-सुना तो लग रहा है लेकिन अच्छे से याद नहीं आ रहा..। अरे, टंट्या शेर जैसा बहादुर था.. जो गरीबों-असहायों के लिए लड़ता था…जिसने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे… प्यार से बच्चे जिसे टंट्या मामा कहते थे… गरीबों की रक्षा करने के कारण लोग उसे भगवान का अवतार मानते थे… आप में से कई बच्चों को शायद याद आने लगा है कि लेकिन अभी भी सब आधा-अधूरा है…। है न! कोई बात नहीं, अब हम आपको टंट्या मामा की बहादुरी की कहानी रोचक तरीके से बताएंगे। फिर बताएंगे ही नहीं, दिखाएंगे भी… हां दोस्तों इस कहानी को आप देख भी सकते हैं, इसमें मन चाहे रंग भी भर सकते हैं… जैसे जोश का प्रतीक लाल रंग और ऊर्जा का प्रतीक, शांति का प्रतीक सफेद रंग और हर वो खूबसूरत रंग जो आपके दिल को भाता है… इतना ही नहीं, मनपसंद रंग भरकर आप इनाम भी पा सकते हैं…।
अब जानना चाहते हैं न, कि कौन था टंट्या? कैसा दिखता था? उनकी बहादुरी के कारनामे कैसे थे? लोग उसे देवता क्यों मानते थे? चलिए, इस पहेली को आप और हम साथ बूझते हैं ताकि हम सब टंट्या भील की शहादत को समझ सकें। टंट्या को बहादुर, नेक व दयालु इंसान के रूप में समझ सकें।
“टंट्या निमाड़ अंचल का जांबाज योद्धा क्रांतिकारी और देशभक्त सपूत था। स्वाधीनता संग्राम में ब्रिटिश हुकूमत को कमजोर करने और अंग्रेजों, सेठ साहूकारों व जमींदारों के शोषण और
प्रेमसिंह बामनिया की रिपोर्ट – अत्याचारों से गरीबों-शोषितों को मुक्त कराने के लिए टंट्या ने सतत संघर्ष किया और अपने प्राणों का बलिदान दिया। समाज में टंट्या का नाम उसी श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता, जिस तरह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भगत सिंह, चंद्रशेखर, सुखदेव, राजगुरु और वीर सावरकर का लिया जाता है। अंचल विशेष में तो टंट्या को तो देवता की तरह ही पूजा जाता है। टंट्या के नाम की शपथ लेकर विवाद / मुकदमे में सच-झूठ का फैसला होता है।
सांवला रंग… लंबी और दुबली लेकिन लोहे-सी मजबूत काया वाले टंट्या का जन्म हुआ, निमाड़ के छोटे से गांव बिरदा के आदिवासी भील परिवार में टंट्या के जन्म की निश्चित तारीख की जानकारी नहीं है लेकिन माना जाता है कि टंट्या का जन्म सन् 1824-1827 के मध्य हुआ है। टंट्या के पिता का नाम था भाऊ सिंह और माँ का नाम था जीवनी. टंट्या के पिता गांव के पटेल के यहां चाकर थे। पटेल बेहद क्रूर और अत्याचारी था। गाँव के गरीब आदिवासियों पर वह तरह-तरह के जुल्म ढाता, उन्हें मारता-पीटता था, उनकी जमीन-जानवर हड़प कर उन्हें दाने-दाने को मोहताज कर, फिर उनसे चाकरी करता। लेकिन गांव वाले उसका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। टंट्या की माँ जीवणी की हत्या भी पटेल और उसके आदमियों ने ही की थी कुछ वर्षों बाद उसके पिता भाऊ सिंह का कत्ल भी पटेल ने ही किया। किशोरवय के टंट्या ने विरोध किया तो पटेल ने भील आदिवासियों की बस्तियां जला दीं।
आतंक और अत्याचार से तंग आकर टंट्या ने असहाय, महिलाओं और बच्चों की रक्षा करने की कसम खाई और पटेल जैसे हर उस व्यक्ति से बदला लेने की ठानी, जो पैसे और शक्ति के दम पर गरीबों के साथ पशुओं जैसा व्यवहार करते थे।बहादुरी के कई किस्से लोक गीतों, लोक कथाओं में गाये जाते है। एक बार बालक टंट्या ने भैंसे से युद्ध किया और उसे मार लोहे की तरह मजबूत था. इतना ही नहीं निशानेबाजी, घुड़सवारी, डाव और गोफण चलाने में उसका कोई मुकाबला नहीं था। पहाड़ों पर दौड़कर चढ़ना- उत्तरना, बाढ़ वाली नदी को पार करना उसके लिए बायें हाथ का खेल था। शरीर से तो वह मजबूत था ही, मन से भी बेहद मजबूत था, जो ठान लेता, वह करके ही दम लेता।
टंट्या ने अत्याचारियों से लड़ने के लिए सबसे पहले संगठित होकर अपने जैसी सोच वाले बहादुर युवाओं की टोली बनाई। अब दया क्रांति के लिए तैयार था यह क्रांति और विद्रोह केवल टंट्या का नहीं था, उन सभी का था जो सामाजिक विसंगतियों, अव्यवस्थाओं, अत्याचारों से, अपमानजनक जीवन से थक चुके थे। दया की टोली जमीनदारों-साहूकारों को लूटती है और धन-माल गरीबों में बांट देती।
टंट्या अब जन योद्धा यानी ऐसा योद्धा बन गया जो आमजन को न्याय दिलाने के लिए अंग्रेजों व्यवस्था से… समाज से… लड़ने लगा। उसकी बहादुरी के चर्चे दूर-दूर तक फैलने लगे। उसकी वीरता और साहस से प्रभावित होकर 1857 की क्रांति के नायक तात्या टोपे ने उसे गोरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया। साथ ही टंट्या में अंग्रेजों की पराधीनता से भारत को मुक्त कराने की चेतना जगाई। टंट्या छापामार तकनीक में पारंगत हो गया था। अंग्रेजों को उसने सूझबूझ भरी रणनीति से खूब छकाया। वह भेष बदल-बदलकर घूमता उसने अपने कई हमशक्ल भी तैयार कर लिए। अब वह अंग्रेजों को उनके थानों को खजानों को मालगुजारों को लूटता और दंडित करता। लूट का माल गरीबों और असहायों में बांट देता। संभवतः टंट्या पहला ऐसा व्यक्ति था, जिसके आतंक से निपटने के लिए अंग्रेजों को टंट्या पुलिस बिग्रेड बनानी पड़ी। होल्कर महाराज को भी टंट्या से संधि करनी पड़ी। जिसके पश्चात होलकर राज्य में टंट्या ने लूटपाट बंद कर दी। अब जब भी टंट्या भूमिगत होना चाहता, होलकर राज्य में आश्रय ले लेता था। टंट्या की बहादुरी व छापामारी दक्षता के कारण उसे वरमा युद्ध में भेजने की वकालत भी सरकार से की गई थी। होशंगाबाद, धार, निमाड़, बैतूल, मालवा, राजस्थान के बांसवाड़ा, भीलवाड़ा, डूंगरपुर, खानदेश, होलकर स्टेट और आसपास के इलाकों तक उसका प्रभाव था।
टंट्या को पकड़ने के सारे प्रयास विफल होने पर पुलिस और मालगुजार हिम्मत ने मिलकर टंट्या को चोरी के झूठे आरोप में फंसा दिया। टंट्या से चोरी का झूठा आरोप बर्दाश्त नहीं हुआ और वह पुलिस से भिड़ गया। पुलिस ने बंदी बनाकर उसे खण्डवा की जेल में डाल दिया। लेकिन टंट्या फिर अपनी सूझबूझ से जेल से भाग निकला और जंगल में आ गया। एक-एक कर बदमाशों से बदला लेने लगा। अब वह गांव-गांव में क्रांति की मशाल सुलगाकर लोगों को संगठित करने लगा। वह 1857 के गदर के बाद जंगल में आये सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों का आश्रयदाता बन गया। 21 नवंबर 1858 को स्वतंत्रता संग्राम, सेनानियों द्वारा खरगोन के किले की विजय का श्रेय टंट्या और उसकी टोली को ही जाता है। तात्या टोपे के साथ खानदेश की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने और रघुनाथ मंडलोई के साथ जबलपुर जेल पर धावा बोलकर भारतीय बंदियों को छुड़ाने में टंट्या मामा की विशेष भूमिका रही।
अपने सहयोगी गणपत राजपूत की गद्दारी के कारण टंट्या भील और उसकी टोली पकड़ी गई। 26. सितम्बर 1889 को जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर के समक्ष दया को प्रस्तुत किया गया। मुकदमा चलाया गया। अंततः 4 दिसंबर 1889 को टंट्या को गुप्त रूप से फांसी दी गई। हालांकि इस बात पर विवाद है कि दया को ही फांसी दी गई या उसके हमशक्ल को… |
बहरहाल, अपने शौर्य के कारण, स्वतंत्रता संग्राम में अपने योगदान के कारण, अत्याचार व शोषण मुक्त समाज के निर्माण के सदप्रयासों के कारण, पहले संगठित आदिवासी विद्रोह के कारण और लाखों-करोड़ों लोगों के दिलों में बसने के कारण… जन नायक के रूप में टंट्या मामा आज भी हमारे जेहन में अज़र है अमर है..।